बलात्कार के मूक दर्शक
बलात्कार का जुर्म एक ऐसा जुर्म है जिसमें अपराधी बलात्कृत 'स्त्री' की केवल शारिरिक हत्या ही नही करता बल्कि उसकी आत्मा की हत्या भी करता है । इस जुर्म की सज़ा हत्या की सज़ा से ज़्यादा होनी चाहिये । कभी कभी शरीर बच भी जाता है तो भी ऐसी महिला जीवित मृत होती है । सिर्फ़ शरीर का ज़िंदा रहना ज़िन्दगी नहीं । शारिरिक, मानसिक और आत्मिक यन्त्रणा औरत को न जीने देती है न मरने देती है ।
किन माँओं की कोख से ऐसे बलात्कारी जनम लेते हैं । कौनसे समाज का ऐसा संस्कार है जो हमारी युवा पीढ़ी को हवस का दरिंदा बनाये दे रहा है । वासना की ऐसी कौनसी आग है जो कैसे भी बुझती नही ? बलात्कार या सामूहिक बलात्कार हमारे लोक तांत्रिक देश की रोज़ाना की खबरें हैं । अभी हाल में ही दिल्ली की चलती हुई बस में युवती के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार ,जिसमें नृशंसता की भी सारी सीमाएं तोड़ दी गयीं। पूरा देश दहलकर रह गया । बढ़ते हुए यौन अपराधों के लिए कौन है दोषी ? मूक दर्शक नपुंसक समाज,संवेदनहीन भीड़,मूक दर्शक,पुलिस और प्रशासन ,मूक दर्शक भ्रष्ट सत्ता,संसद,विधानसभाएं या अन्धी, गूँगी, बहरी जनता या तथाकथित कानून व्यवस्था जो ऐसे हाथो में हैं जो औरत का साथ नही देते तो क्यों न कानून बलात्कृत नारी के हाथ में सौप दिया जाये ताकि वो ऐसे जघन्य अपराधियों को स्वयं ही मृत्यु दण्ड दे सके ।
सम्मानित,भ्रष्ट,और दुराचारी-व्यभिचारी,राजनीतिज्ञ,
उपभोक्ता संस्कृति में स्त्री, नारी, औरत केवल विज्ञापन की वस्तु है, माध्यम है, अश्लील पोस्टर है, अश्लील आईटम है, भोग की वस्तु है, वो अश्लील गानों की अश्लील ज़हरीली आवाज़ है । फिल्मों और टीवी चैन्नलों में संवेदनहीन नपुंसक सेंसर बोर्ड के चलते औरत नंगी,अश्लील-कामुक,वस्तु,पदार्थ और भंगिमा मात्र है । गंदे फूहढ़ अश्लील गानों पर नाचते-मटकते सुपर स्टार और अधनंगी हिरोइने , निरंकुश मनोरंजन उद्योग, निरंकुश अपराधी जगत, निरंकुश सत्ता और प्रशासन क्या कभी औरत को सम्मान, आदर और उसके हिस्से का न्याय दे सके हैं या दे पायेंगे ?
बलात्कारी को अधिक से अधिक 7 वर्ष की सज़ा होती है : औरत को उम्र भर की, वाह क्या न्याय है ? ऐसे दरिंदो और वहशियों को सरे बाज़ार जिंदा जला देना चाहिए, या गोलियों से भून देना चाहिए या फ़ासी की सज़ा दे देनी चाहिए । यदि कानून अक्षम है बेबस है तो स्त्री को अपना न्याय स्वयं करने दें । आदि-शक्ति की भाँति नारी के हाथ में शस्त्र सौप दें ।
कठोर शब्दों में निंदा, हार्दिक संवेदना, हाथो में तख्तियां और पोस्टर लिए हुए जुलूस, या मोमबत्तियां लिए हुए शांति प्रदर्शन । क्या वाकई इतनी शांति की ज़रूरत है या व्यापक सशस्त्र क्रांति की । फ़ैसला आपके और हमारे हाथो में है ।
-डाँo मधुरिमा सिंह